धारा 302 आईपीसी

धारा 302 आईपीसी: हत्या का अपराध और इसके कानूनी प्रावधान

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धारा 302 आईपीसी: परिचय और संक्षिप्त विवरण

भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 आईपीसी हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए कानूनी प्रावधान करती है। इस धारा के अंतर्गत, हत्या को जानबूझकर और गैरकानूनी रूप से किसी व्यक्ति की जीवन समाप्त करने की कार्रवाई के रूप में परिभाषित किया गया है। धारा 302 की विशिष्टता यह है कि यह हत्या के अपराध को वर्गीकृत करते हुए इसके दंड का निर्धारण करती है, जो हत्या के उद्देश्य और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इस धारा के तहत दोषी पाए जाने पर आरोपी को अधिकतम मौत की सजा या उम्रकैद की सजा हो सकती है, और कुछ मामलों में जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

धारा 302 के तहत कानून का उद्देश्य केवल अपराधियों को दंडित करना नहीं है, बल्कि समाज में हत्या जैसे संगीन अपराधों पर अंकुश लगाना है। हत्या के मामलों में भारतीय न्यायिक प्रणाली द्वारा इस धारा का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, और यह किसी भी हत्या के केस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अतिरिक्त, धारा 302 के तहत सजा के प्रावधानों का निर्णय, अदालतों द्वारा अपराध की प्रकृति, हत्या की योजना, और अपराधी के इरादे जैसे महत्वपूर्ण कारकों पर आधारित होता है। इस प्रकार, यह धारा अपराध और दंड के बीच उचित संतुलन स्थापित करने में सहायक होती है।

हत्या के आवश्यक तत्व: धारा 302 के तहत अपराध की परिभाषा

धारा 302 के तहत हत्या के अपराध की परिभाषा को समझने के लिए इसके आवश्यक तत्वों का विश्लेषण करना आवश्यक है। हत्या के अपराध को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष को निम्नलिखित बिंदुओं को स्थापित करना आवश्यक है:

  1. मानव का मृत होना (Death of a Human Being): सबसे पहला और महत्वपूर्ण तत्व यह है कि अपराध में किसी इंसान की मृत्यु होनी चाहिए। केवल मानव की हत्या ही धारा 302 के अंतर्गत आती है, अन्य किसी जीव या वस्तु की नहीं।
  2. कारण का संबंध (Causal Relationship): हत्या के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त की क्रिया और मृत्यु के बीच प्रत्यक्ष कारण संबंध स्थापित हो। यह साबित करना होगा कि आरोपी की कार्रवाई का सीधा परिणाम किसी व्यक्ति की मृत्यु के रूप में सामने आया है।
  3. जानबूझकर या इरादतन हत्या (Mens Rea – Intention): धारा 302 के तहत हत्या के अपराध को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि आरोपी ने जानबूझकर और पूर्व नियोजित तरीके से हत्या को अंजाम दिया। इरादतन हत्या का तत्व इस धारा का महत्वपूर्ण भाग है, जो यह निर्धारित करता है कि अपराधी ने हत्या किस उद्देश्य से की थी।
  4. घातक चोटें (Injuries): हत्या के अपराध में, आरोपी द्वारा किए गए कार्य से पीड़ित को गंभीर और घातक चोटें पहुंचाई गई हों, जो उसकी मृत्यु का मुख्य कारण बनती हैं। यह साबित करना होगा कि जो चोटें पीड़ित को लगीं, वे मृत्यु के लिए पर्याप्त थीं।

इन तत्वों को साबित किए बिना, धारा 302 के तहत किसी व्यक्ति को हत्या का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। न्यायालयों द्वारा इन तत्वों की जांच करते समय घटना की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है, ताकि यह तय किया जा सके कि हत्या वास्तव में जानबूझकर की गई थी या नहीं।

धारा 302 के तहत हत्या से संबंधित अपवाद

हालांकि धारा 302 हत्या के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करती है, लेकिन कुछ अपवाद भी हैं, जिनमें हत्या के अपराध को कम किया जा सकता है या इसे पूर्ण रूप से अपराध नहीं माना जाता। भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत ऐसे कई अपवाद दिए गए हैं, जो अपराध की परिस्थिति और हत्या के पीछे के उद्देश्य को देखते हुए लागू होते हैं। मुख्यतः ये अपवाद निम्नलिखित हैं:

  1. आत्मरक्षा (Self-Defense): यदि कोई व्यक्ति अपनी या किसी अन्य व्यक्ति की जान बचाने के लिए हत्या करता है, तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता। भारतीय कानून के तहत आत्मरक्षा का अधिकार प्रत्येक नागरिक को दिया गया है, और अगर कोई व्यक्ति अपनी जान के खतरे से बचने के लिए बल का प्रयोग करता है, तो इसे हत्या नहीं माना जाता।
  2. उकसावे के कारण हत्या (Grave and Sudden Provocation): यदि किसी व्यक्ति को अचानक और गहन उकसावे के कारण हत्या करने पर मजबूर होना पड़ा हो, तो यह हत्या धारा 302 के तहत नहीं आएगी। ऐसे मामलों में अपराधी के मानसिक संतुलन का भी आकलन किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उसने उकसावे में आकर हत्या की है, न कि पूर्व नियोजित तरीके से।
  3. वैध कर्तव्य के तहत हत्या (Act of a Public Servant): अगर किसी सरकारी अधिकारी ने अपने वैध कर्तव्य का पालन करते हुए हत्या की हो, तो उसे भी हत्या नहीं माना जाता। यह शर्त इस बात पर आधारित है कि हत्या कानूनन जिम्मेदारी निभाते हुए की गई हो और इसमें पूर्व नियोजित इरादा न हो।
  4. न्यायोचित कर्तव्य (Justifiable Acts): कुछ स्थितियों में, न्यायसंगत कर्तव्य पालन करते हुए हत्या को अपराध नहीं माना जाता, जैसे कि युद्ध की स्थिति में सैनिक द्वारा किया गया कार्य, या मृत्यु दंड लागू करते समय न्यायिक अधिकारी द्वारा लिया गया निर्णय।

इन अपवादों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि हत्या के हर मामले में धारा 302 को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। हत्या की परिस्थितियों और अभियुक्त के कार्यों का विस्तृत विश्लेषण करके ही यह तय किया जा सकता है कि हत्या अपराध है या नहीं।

धारा 302 के तहत दंड और सजा का प्रावधान

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या के दोषी पाए जाने पर कड़ी सजा का प्रावधान है। इस धारा के अंतर्गत दो प्रकार की सजा दी जा सकती है: मृत्यु दंड या आजीवन कारावास। इन दोनों सजाओं में से किसे लागू किया जाएगा, इसका निर्धारण केस की गंभीरता, हत्या के पीछे के उद्देश्य, और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आइए विस्तार से इन दंड प्रावधानों को समझते हैं:

  1. मृत्यु दंड (Capital Punishment): यह सबसे कड़ी सजा है, जो धारा 302 के तहत अपराधी को दी जा सकती है। सामान्यतः यह सजा उन मामलों में दी जाती है, जहां हत्या की प्रकृति अत्यंत क्रूर और जघन्य हो। उदाहरण के लिए, सामूहिक हत्या, बच्चों की हत्या, या किसी सार्वजनिक व्यक्ति की हत्या जैसे मामलों में अदालतें मृत्यु दंड का प्रावधान करती हैं। भारत में, मृत्यु दंड का निर्णय केवल उन मामलों में दिया जाता है जो ‘अत्यंत दुर्लभ’ (rarest of the rare) श्रेणी में आते हैं, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में कहा है।
  2. आजीवन कारावास (Life Imprisonment): यदि अदालत यह मानती है कि अपराधी के कार्यों में सुधार की संभावना है या अपराध उतना गंभीर नहीं है कि उसे मृत्यु दंड दी जाए, तो आजीवन कारावास की सजा दी जाती है। इसका अर्थ यह है कि दोषी व्यक्ति को जीवन के शेष समय तक कारावास में रहना होगा। हालांकि, कुछ मामलों में अदालतें आजीवन कारावास के वर्षों की सीमा भी तय कर सकती हैं, जैसे 14 या 20 वर्ष, जिसके बाद सजा समाप्त हो सकती है या परोल पर रिहाई का अधिकार हो सकता है।
  3. जुर्माना (Fine): कुछ मामलों में, अदालतें धारा 302 के तहत सजा के साथ-साथ दोषी पर आर्थिक जुर्माना भी लगा सकती हैं। यह जुर्माना अक्सर हत्या से जुड़े मामलों में अपराधी को और अधिक दंडित करने के लिए लगाया जाता है, विशेष रूप से तब जब अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित के परिवार को भारी आर्थिक क्षति पहुंची हो।

धारा 302 के तहत दी जाने वाली सजा का निर्धारण करते समय अदालतें अपराध की प्रकृति, आरोपी का मानसिक हाल, हत्या के पीछे के उद्देश्य, और हत्या से जुड़े अन्य कानूनी और सामाजिक पहलुओं पर ध्यान देती हैं।

धारा 302 के तहत जमानत के प्रावधान और न्यायालय के निर्णय

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत हत्या का आरोप बेहद गंभीर है, और इसके परिणामस्वरूप जमानत का प्रावधान जटिल और सीमित होता है। यह धारा गैर-जमानती अपराधों की श्रेणी में आती है, जिसका अर्थ है कि आरोपी को स्वतः जमानत नहीं मिल सकती। अभियुक्त को जमानत देने का निर्णय पूरी तरह से न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है। इसके लिए विभिन्न कारकों का विश्लेषण किया जाता है, जैसे अपराध की गंभीरता, उपलब्ध साक्ष्य, अभियुक्त का आचरण और सामाजिक प्रभाव। जमानत के संबंध में निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं का ध्यान रखा जाता है:

  1. अपराध की प्रकृति और साक्ष्य (Nature of the Crime and Evidence): जमानत देने से पहले अदालत इस बात का आकलन करती है कि अपराध कितना गंभीर है और अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य कितने ठोस हैं। हत्या के मामलों में, विशेष रूप से अगर यह पूर्व नियोजित (premeditated) हो, तो जमानत मिलने की संभावना काफी कम होती है। यदि न्यायालय यह मानती है कि अभियुक्त ने जानबूझकर और योजनाबद्ध तरीके से हत्या की है, तो जमानत का अवसर लगभग समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत, अगर मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है या जमानत के दौरान अभियोजन पक्ष पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करने में असमर्थ रहता है, तो जमानत की संभावना बढ़ सकती है।
  2. अपराधी का आचरण और पृष्ठभूमि (Conduct and Background of the Accused): न्यायालय अभियुक्त के आपराधिक रिकॉर्ड और उसके समाज में स्थान को भी ध्यान में रखती है। अगर आरोपी का आपराधिक इतिहास नहीं है और उसकी समाज में प्रतिष्ठा अच्छी है, तो उसे जमानत मिलने की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, अगर अदालत को लगता है कि आरोपी फरार होने या सबूतों से छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं करेगा, तो भी जमानत मिल सकती है। वहीं, यदि अभियुक्त के भागने की आशंका होती है या उसने पहले कानून का उल्लंघन किया हो, तो जमानत को अस्वीकार कर दिया जाता है।
  3. महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय (Important Judicial Decisions): कई महत्वपूर्ण न्यायालयीन निर्णयों ने धारा 302 के तहत जमानत के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए हैं। उदाहरण के लिए, State of UP v. Amarmani Tripathi (2005) में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि हत्या के गंभीर मामलों में जमानत देने से पहले अपराध की गंभीरता और साक्ष्य की मजबूती को ध्यान में रखा जाना चाहिए। State of Rajasthan v. Balchand (1977) में, सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्देश दिया कि “जमानत नियम है, जेल अपवाद,” लेकिन यह धारा 302 के जघन्य मामलों पर लागू नहीं होता, जहां अपराध समाज के लिए खतरा उत्पन्न करता है।
  4. विचारणीय मुद्दे (Key Issues for Consideration): अदालतें यह भी देखती हैं कि आरोपी को जमानत देने से समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा। गंभीर मामलों में, जैसे सामूहिक हत्या, अत्यधिक बर्बरता, या सार्वजनिक व्यक्ति की हत्या, जमानत देना न्यायपालिका और समाज की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इसके अतिरिक्त, अदालत यह सुनिश्चित करती है कि यदि आरोपी जमानत पर रिहा होता है, तो वह गवाहों को धमकाने या सबूतों से छेड़छाड़ करने जैसी गतिविधियों में शामिल न हो। ऐसे मामलों में जमानत खारिज की जा सकती है।

धारा 302 के तहत जमानत मिलना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। जब तक पर्याप्त सबूत और मामला पूरी तरह से अदालत के समक्ष नहीं आ जाता, तब तक जमानत मिलना असंभव होता है। जमानत का निर्णय हर मामले की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है, और यह सुनिश्चित किया जाता है कि आरोपी को केवल तभी जमानत दी जाए जब वह समाज के लिए कोई खतरा न हो।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय: धारा 302 से संबंधित ऐतिहासिक मामले

धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के संदर्भ में भारतीय न्यायालयों ने कई ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं, जिनका न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक प्रभाव भी रहा है। इन निर्णयों ने न्यायिक सिद्धांतों को स्पष्ट किया और धारा 302 की व्याख्या को न्यायिक रूप से परिभाषित किया है। यह खंड कुछ महत्वपूर्ण मामलों का विवरण प्रदान करता है, जो इस धारा के तहत कानूनी सिद्धांतों को स्थापित करने में सहायक रहे हैं:

  1. Bachan Singh v. State of Punjab (1980): यह मामला भारतीय न्यायिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने ‘दुर्लभतम मामलों’ (rarest of the rare) के सिद्धांत को स्थापित किया। इस निर्णय में अदालत ने कहा कि मृत्यु दंड केवल उन मामलों में दिया जाना चाहिए, जहां अपराध अत्यंत जघन्य और गंभीर हो। यह निर्णय धारा 302 के तहत सजा निर्धारण में मील का पत्थर साबित हुआ, क्योंकि इसने स्पष्ट किया कि हर हत्या के मामले में मृत्यु दंड देना न्यायसंगत नहीं होगा।
  2. Machhi Singh v. State of Punjab (1983): इस मामले ने ‘दुर्लभतम मामलों’ की व्याख्या को और विस्तृत किया। सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के मामलों में सजा के निर्धारण के लिए कुछ मानक स्थापित किए, जैसे अपराध की प्रकृति, उसके पीछे की मंशा, और समाज पर उसके प्रभाव का आकलन। इस मामले में पांच मानक तय किए गए, जिनके आधार पर यह निर्णय लिया जा सकता है कि मृत्यु दंड दिया जाए या नहीं। ये मानक यह सुनिश्चित करते हैं कि केवल अत्यंत जघन्य अपराधों में ही मौत की सजा दी जाए।
  3. Kehar Singh v. State (1988): यह मामला इंदिरा गांधी की हत्या से संबंधित था, जिसमें धारा 302 के तहत साजिश के आधार पर अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह स्पष्ट किया कि हत्या के मामलों में साजिश को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए और यदि साजिश साबित होती है, तो उसे हत्या के अपराध के बराबर माना जा सकता है।
  4. Sushil Murmu v. State of Jharkhand (2004): इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को मानव बलि के आरोप में दोषी ठहराया और धारा 302 के तहत मृत्यु दंड की सजा दी। अदालत ने कहा कि मानव बलि जैसी अमानवीय और बर्बर हत्या दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में आती है और इस तरह के अपराधों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के नाम पर की गई हत्याओं को कड़ी सजा दी जाए।
  5. State of Maharashtra v. Damu Gopinath Shinde (2000): इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 302 के तहत सजा का निर्धारण केवल सबूतों पर आधारित होना चाहिए, और बिना ठोस सबूत के हत्या के मामले में किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले ने साक्ष्य के महत्व पर जोर दिया और यह सुनिश्चित किया कि किसी को केवल संदेह के आधार पर सजा न दी जाए।
  6. Nirbhaya Case (2017): यह मामला धारा 302 के तहत सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण मामलों में से एक है। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया के दोषियों को मौत की सजा सुनाई और इसे दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में रखा। इस फैसले ने न केवल धारा 302 के तहत न्याय की प्रक्रिया को सुदृढ़ किया, बल्कि समाज में महिलाओं की सुरक्षा और न्याय के प्रति विश्वास को भी बढ़ाया।

इन ऐतिहासिक निर्णयों ने धारा 302 के तहत कानूनी सिद्धांतों और न्यायिक प्रक्रियाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हर मामले में अदालतों ने हत्या के अपराध की गंभीरता और समाज पर उसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए सजा का निर्धारण किया है। ये निर्णय यह भी सुनिश्चित करते हैं कि धारा 302 का उपयोग केवल उचित और न्यायसंगत मामलों में किया जाए, और कानून का दुरुपयोग न हो।

धारा 302 आईपीसी की जगह धारा 103 भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS)

भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 302, जो हत्या के अपराध और उसकी सजा से संबंधित थी, अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अंतर्गत धारा 103 द्वारा प्रतिस्थापित की गई है। धारा 103, BNS के तहत हत्या के अपराध को परिभाषित करते हुए इसका दंड भी निर्धारित किया गया है, जो IPC की धारा 302 के समान ही है। इसके अंतर्गत जानबूझकर हत्या करने पर अधिकतम सजा मृत्यु दंड या आजीवन कारावास है। साथ ही, BNS की धारा 103 के तहत अभियुक्त पर आर्थिक जुर्माना भी लगाया जा सकता है, यदि अदालत ऐसा उचित समझे। BNS ने IPC की पुरानी धाराओं को आधुनिक संदर्भ में अपडेट करते हुए कई कानूनी प्रावधानों को स्पष्ट और सरल बनाने का प्रयास किया है, ताकि कानून की प्रक्रिया को अधिक सुलभ और न्यायसंगत बनाया जा सके।

धारा 103 के अंतर्गत हत्या के अपराध के आवश्यक तत्व, सजा के प्रावधान, और अन्य कानूनी प्रक्रियाएं लगभग वही हैं जो IPC की धारा 302 में थीं। भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत, अदालतें अब धारा 103 का संदर्भ लेकर हत्या के मामलों का निर्णय करती हैं, लेकिन IPC के तहत पहले से लंबित मामलों में भी इस धारा का उपयोग किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, IPC से BNS टूल का उपयोग करके आप पुराने कानून, यानी भारतीय दंड संहिता (IPC) की किसी भी धारा का भारतीय न्याय संहिता (BNS) के अंतर्गत संबंधित धारा का पता आसानी से लगा सकते हैं। यह टूल IPC से BNS में बदलाव को समझने और नया कानून सीखने में सहायक है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में कोई बाधा न हो।

निष्कर्ष: धारा 302 आईपीसी और धारा 103 भारतीय न्याय संहिता का कानूनी महत्व

धारा 302 आईपीसी, जिसे अब भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 103 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, भारत में हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए सबसे सख्त कानूनी प्रावधानों में से एक है। हत्या के अपराध को परिभाषित करने के साथ-साथ इस धारा ने दंडात्मक न्याय की दिशा में एक मजबूत दृष्टिकोण स्थापित किया है। चाहे वह सजा का प्रावधान हो या जमानत की कठिन शर्तें, यह कानून हत्या जैसे गंभीर अपराधों को नियंत्रित करने और समाज को सुरक्षा प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नई भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने इसे और अधिक स्पष्ट और सुसंगत रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे अदालतों और कानूनी पेशेवरों के लिए इसे लागू करना आसान हो गया है।

हमारी कानून फर्म, Vera Causa Legal, हत्या के मामलों में विशेषज्ञता प्राप्त करने वाली अग्रणी फर्मों में से एक है। हमारे अनुभवी और कुशल वकील हत्या के आरोपों से संबंधित कानूनी प्रक्रियाओं में गहन ज्ञान रखते हैं, चाहे वह जमानत प्राप्त करने का प्रयास हो या मुकदमे में बचाव का मामला हो। Vera Causa Legal के वकील न केवल धारा 103 BNS (पूर्व धारा 302 IPC) के प्रावधानों में निपुण हैं, बल्कि हत्या के मामलों में बेहतरीन कानूनी समाधान प्रदान करने के लिए नवीनतम न्यायिक निर्णयों और प्रक्रियाओं से भी पूरी तरह अवगत हैं। चाहे आप जमानत प्राप्त करने के लिए कानूनी सहायता की तलाश कर रहे हों या हत्या के मुकदमे में बचाव की रणनीति की आवश्यकता हो, हमारे वकील आपको सर्वोत्तम कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए पूरी तरह से सुसज्जित हैं।

FAQs on Section 302 IPC and Section 103 BNS

  1. धारा 302 आईपीसी क्या है?

धारा 302 भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 के अंतर्गत हत्या के अपराध को परिभाषित करती है और इसमें मौत की सजा या उम्रकैद का प्रावधान है। यह अपराध तब माना जाता है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर और गैरकानूनी तरीके से किसी की हत्या करता है।

  1. क्या धारा 302 आईपीसी को भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने प्रतिस्थापित किया है?

हां, भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) ने IPC की धारा 302 को धारा 103 से प्रतिस्थापित किया है, जिसमें हत्या के अपराध के लिए समान प्रावधान और सजा का निर्धारण किया गया है।

  1. धारा 302 और धारा 103 BNS में क्या अंतर है?

धारा 302 आईपीसी और धारा 103 BNS में कोई बड़ा अंतर नहीं है। दोनों धाराएं हत्या के अपराध के लिए समान सजा का प्रावधान करती हैं, जैसे मौत की सजा या उम्रकैद। BNS में केवल भाषा और कानूनी संरचना को अधिक सुसंगत और सरल बनाया गया है।

  1. क्या धारा 103 BNS के तहत जमानत मिल सकती है?

धारा 103 BNS (पूर्व धारा 302 आईपीसी) के तहत जमानत मिलना बहुत कठिन होता है क्योंकि यह एक गैर-जमानती अपराध है। जमानत केवल विशेष परिस्थितियों में दी जाती है, और न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि आरोपी का भागने या सबूतों से छेड़छाड़ करने का कोई खतरा न हो।

  1. क्या धारा 103 BNS के तहत सजा हमेशा मृत्यु दंड होती है?

नहीं, धारा 103 BNS के तहत सजा के रूप में मृत्यु दंड या आजीवन कारावास दी जाती है। अदालत सजा का निर्धारण हत्या की गंभीरता, परिस्थितियों, और अपराधी के इरादे के आधार पर करती है। ‘दुर्लभतम मामलों’ में ही मृत्यु दंड दी जाती है।

  1. क्या पुराने मामलों में IPC की धारा 302 लागू होती रहेगी?

हां, जो मामले IPC के तहत पहले से लंबित हैं, उनमें धारा 302 का उपयोग किया जाएगा। लेकिन नए कानून के तहत दर्ज मामलों में BNS की धारा 103 लागू होगी।

  1. IPC से BNS के अंतर्गत धाराओं का पता कैसे लगाएं?

IPC की धाराओं को BNS के अंतर्गत खोजने के लिए आप IPC से BNS टूल का उपयोग कर सकते हैं। यह एक उपयोगी उपकरण है, जो IPC की किसी भी धारा का BNS में संबंधित धारा आसानी से ढूंढने में मदद करता है।

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